सुप्रीम कोर्ट :राज्य और केंद्र के आंखमिचौली के खेल में अटकी बिहार कि शिक्षा

नई दिल्ली:विशेष रिपोर्ट
शिक्षा के सार्वभौमिकरण को प्राप्त करने कि दिशा में लगातार निर्धारित तिथि का असफल होना,देश का भागडोर संभाल रहे राजनेताओं के कार्यशैली और नीयत पर सवाल खडे कर रहा है।एक लंबी पराधीनता के पश्चात अस्तित्व में आये  देश  कि एक बडी आबादी को को बेहतर शिक्षा प्रदान करना एक बडी चुनोती तो थी ही पर ये चुनौती कभी उतनी भी बडी कभी  नहीं रही कि इसे खत्म न किया जा सके।
चाहे नेहरू का दौर हो या मोदी का ,शिक्षा सदैव शासन के लिए द्वितीयक प्राथमिकता कि वस्तू रही है।
देश के कर्ता धर्ताओं के भाषण में सदैव शीर्षतम स्थान पाने वाली शिक्षा व स्वास्थ्य दोनों खस्ताहाल ही रही है
आज देश कि सरकारी स्कुली शिक्षा जिस जद्दोजहद में फसी हुई पडी है ये कोई तत्कालिक कारणों से नहीं बल्कि शासन द्वारा लगातार उपेक्षित होने से हुआ है।

विगत ढेर दशक से विद्यालय शिक्षा के मंदिर से अप्रत्यक्ष चुनावी प्रलोभन दे वोट बैंक को सुरक्षित करने वाला भवन बन कर रह गया है,विद्यालय से भवन बने इस मंदिर में सम्मिलित छात्रों से लेकर शिक्षकों के साथ धोखा ही हो रहा है क्योंकि सरकार ने जाने अनजाने में एक ऐसा तंत्र स्थापित कर दिया है जिसमें न तो गुणवत्ता पुर्ण शिक्षा कि संभावना है और न ही शिक्षक इस स्थिति मेंं हैं कि वे चाहकर भी गुणवत्ता पुर्ण शिक्षा दे पाये।

सवालों के घेरे में केंद्र व राज्य कि नीयत:
वर्तमान परिस्थितियों पर गौर किया जाये तो ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जायेगें जिससे साबित होता है कि सरकारों कि नीयत में खोट है।
ताजा मामला शिक्षा के क्षेत्र में सबसे पिछडे राज्य बिहार से संबंधित है।हमेशा शिक्षा से जुडी नकारात्मक खबरों से चर्चा में रहने वाले सुशासन कि सरकार के नेतृत्व में जिस तरह से शिक्षा व शिक्षकों का माखौल उडाया जा रहा है वह कहीं से भी जायज नहीं है।
पटना हाईकोर्ट से समान काम समान वेतन का मामला जीत चुके नियोजित शिक्षकों को उनका हक देना तो दुर कि बात रही ,जिस स्तर से बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने द्वारा बहाल नियोजित शिक्षकों कि योग्यता पर सवाल खडे किया।
वो निरंकुशता का चरम ही कहा जायेगा।
सुप्रीमकोर्ट में सुनवाई के दौरान प्रारंभ से ही अपने कुर्तकों से न्यायालय को घुमराह कर रही सरकार लगभग दो दर्जन  सुनवाई में भी अपनी बात पुरी नहीं कर सकी
तो वहीं केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे  भारत के अटर्नी जनरल के.के.वेणुगोपाल कब किस करवट बैठेगें इसपर संदेह के बादल छाये हुए है
प्रारंभ में अटर्नी जनरल का ये कहना कि केंद्र ने अपना पक्ष एफिडेविट के माध्यम से रख दिया है शिक्षकों का वेतन निर्धारण करना राज्यों कि जिम्मेवारी है केंद्र अपने हिस्से कि राशि देती आई है हमें इसमें कुछ और नहीं कहना, परंतू जब सुनवाई  लगभग पुरी हो चुकी थी और महान्यायवादी वेणुगोपाल का फिर से केंद्र का पक्ष रखना वो भी चार दिनों तक तो ये कुछ अटपटा है क्योंकि वेणुगोपाल जी भारत के महान्यायवादी हैं जो संवैधानिक मुल्यों  कि रक्षा करने के लिए नियुक्त हुए हैं न कि कुतर्कों के बल पर संवैधानिक मुल्यों का गला घोटने के लिए,एक महान्यायवादी का यह तर्क कि शिक्षकों को एक समान वेतन देने से देश में अराजकता फैल सकती है कहां तक उचित है?


चूंकि अटर्नी जनरल के वक्तव्य को केंद्र का अक्षरशः माना जाता है तो क्या ये मान लिया जाये कि इस देश में अराजकता शिक्षकों से फैल सकती है ,ऐसा केंद्र कि सरकार सोचती है।

क्या 1.76लाख करोड का बिहार का बजट जिसमें शिक्षा का बजट 25हजार करोड है ,इसमें चार से पांच हजार करोड कि बढोत्तरी से राज्य के साथ साथ केंद्र का वित्तीय दिवालियापन  हो सकता है?

शिक्षकों के लिए आगे कि राह:-
चूंकि बिहार के नियोजित शिक्षकों केंद्र व राज्य दोनों से मोर्चा संभाला है,तो वे धैर्य रखें और संविधान पर भरोषा रखें क्योंकि सुप्रीम कोर्ट आज भी दबाव मुक्त है और कल भी रहेगा ।
शिक्षक राष्ट्र निर्माता के नाम से जाने जाते हैं और राष्ट्र के बौद्धिक रुप से संपन्न राष्ट्र के निर्माण में उन्हें किस तरह कि कठिनाइयों का सामना करना पड सकता है इससे वे भलिभांति अवगत हैं
कानूनविदों कि अवधारणा:-एक बात स्पष्ट है कि संवैधानिक पक्ष पुर्णतः शिक्षकोंं के पक्ष मेेंं हैै और ये बात
अटर्नी जनरल व बिहार सरकार के अधिवक्ता भलीभांति जानते हैं इसलिए उनकी कोशिश लगातार यही रही है कि पटना हाईकोर्ट का फैसले को हु ब हु लागू करने कि बाध्यता से किसी तरह बचा जाये जिसके लिए वित्तीय आपात जैसा माहौल खडा करने कि निरंतर कोशिश जारी भी है।



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